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Sourav Roy

छुट्टियों में घर

छुट्टियों में घर चला
अपने घर अपने बाबा के घर चला

उतना चला जितना घर मेरा था
साल में एक बार घर मेरा घर था
घर का एक कमरा
कमरे का एक टेबल
टेबल से छिटकी रोशनी
टेबल तले दबा अँधेरा मेरा था

छुट्टियों में घर को फुर्सत थी मुझे अपनाने की
और मुझे फुर्सत थी अपना लिए जाने की
मैं जिस घर में पैदा नहीं हुआ
बड़ा नहीं हुआ
वह घर मुझमें पैदा होने की
बड़े होने की पुरजोर कोशिश कर रहा था

घर से मेरी पसन्द की खुशबू आ रही थी—
आज बना होगा मेरी पसन्द का पोस्तुबड़ा
की जायेंगी पसन्द की बातें
शहरी छोरा गाँव में नये कपड़े पहनकर
बन जाऊँगा यहाँ का राजा बाबू
छोटी चीज़ों के बड़ी बातें ढूँढ़ता
मैं बच्चों से बतियाऊँगा

सबको पसन्द आऊँगा . . .

घर के बाहर का रास्ता मेरी परछाईं थी
शान्त ठण्डी काली टेढ़ी—मेढ़ी—सी
रास्ते में जगह—जगह गड्ढे थे
अपने रोज़मर्रा के झमेलों में डूबे हुए
कुछ से अनजान कुछ मैं भूल चुका था
मेरे गड्ढों में पानी नहीं कीचड़ था

अपनी परछाईं पर चल
घर का दरवाज़ा खटखटाता सोच रहा था—
किसी अनजान आदमी ने दरवाज़ा खोला तो क्या कहूँगा?

मेरा घर
मुझमें प्रवेश
कर रहा था।

(अक्टूबर 2013, चाकुलिया)

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